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स रा॑जसि पुरुष्टुतँ॒ एको॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे । इन्द्र॒ जैत्रा॑ श्रव॒स्या॑ च॒ यन्त॑वे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa rājasi puruṣṭutam̐ eko vṛtrāṇi jighnase | indra jaitrā śravasyā ca yantave ||

पद पाठ

सः । रा॒ज॒सि॒ । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । एकः॑ । वृ॒त्राणि॑ । जि॒घ्न॒से॒ । इन्द्र॑ । जैत्रा॑ । श्र॒व॒स्या॑ । च॒ । यन्त॑वे ॥ ८.१५.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:15» मन्त्र:3 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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शिव शंकर शर्मा

परमात्मा की स्तुति दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुष्टुत) हे सर्वस्तुत ! सर्वपूज्य परमदेव ! (सः) परमप्रसिद्ध वह तू (राजसि) प्रकृतिमध्य शोभित हो रहा है और सर्ववस्तु का शासन कर रहा है और (एकः) असहाय केवल एक ही तू (वृत्राणि) संसार के निखिल विघ्नों को विनष्ट करता है। हे (इन्द्र) इन्द्र ! (जैत्रा) जेतव्य (च) और (श्रवस्या) श्रोतव्य सकल पदार्थों के (यन्तवे) अपने वश में रखने के लिये तू सर्वदा निःशेष विघ्नों को विनष्ट किया करता है। हे भगवन् धन्य तू और धन्य तेरी शक्ति ॥३॥
भावार्थभाषाः - इन्द्र ही सर्वविघ्नविनाशक होने से पूज्य है, इसको निश्चय करो ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् (पुरुष्टुत) सब ज्ञानियों से स्तुत ! आप (सः, राजसि) वह विराजमान हो रहे हैं, जो (जैत्रा, श्रवस्या, च) जेतव्य और यश योग्य पदार्थों की (यन्तवे) प्राप्ति कराने के लिये (एकः) केवल असहाय ही (वृत्राणि) सब अज्ञानों को (जिघ्नसे) नष्ट कर देते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि अन्योपासना से उस परमात्मा की उपासना में यह विशेषता है कि अन्य साधारण मनुष्य आदि की उपासना किसी एक तुच्छ कार्य्य की सिद्धि करा सकती है और परमात्मोपासना ऐसे दिव्यज्ञान को उत्पन्न करती है, जिससे मनुष्य साधारण अभीष्ट को ही नहीं, किन्तु बड़े-२ लौकिक तथा पारलौकिक अभीष्टों को सिद्ध करने में समर्थ होता है, जो अभीष्ट सन्मार्ग द्वारा सिद्ध होकर उसके पवित्र यश को बढ़ाते हैं, अतएव वही सर्वोपरि उपासनीय है ॥३॥
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शिव शंकर शर्मा

परमात्मनः स्तुतिः दर्श्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे पुरुष्टुत=सर्वस्तुत=सर्वपूज्य परमात्मन् ! सः=परमप्रसिद्धस्त्वम्। राजसि=सर्वत्र प्रकृतिमध्ये शोभसे। यद्वा। सर्वान् पदार्थान् शासि। अपि च। इन्द्र त्वम्। एकः=एक एव। असहायः=केवल एक एव। वृत्राणि=संसारोत्थानि सर्वाणि आवरकाणि=विघ्नोत्पादकानि वस्तूनि। जिघ्नसे=हंसि= विनाशयसि। हे इन्द्र ! जैत्रा=जैत्राणि जेतव्यानि। च पुनः। श्रवस्या=श्रवस्यानि=श्रोतव्यानि सर्वाणि वस्तूनि च। यन्तवे=यन्तुं नियन्तुम्=स्ववशे कर्त्तुम्। सर्वान् विघ्नान् हंसीति परामर्शः ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् (पुरुष्टुत) सर्वैर्ज्ञानिभिः स्तुत ! (सः, राजसि) स त्वं दीप्यसे यः (जैत्रा, श्रवस्या, च) जेतव्यधनानि यशोऽर्हपदार्थांश्च (यन्तवे) प्राप्तुं (एकः) केवल एव (वृत्राणि) अज्ञानानि (जिघ्नसे) निहंसि ॥३॥